हाँ मैं मज़दूर हूँ साहेब
जो काँधे में बच्चों को
और सिर में पोटली उठाये
पाँच-सात सौ कोस चल सकता हूँ
लेकिन आप क्या हो ! साहेब
इन बरसों मे किसने सोचा है हमारे लिए
आप भी क्यों सोचते?
जान का डर किसे नहीं होता
लेकिन कोरोना का डर हमसे पहले
आपको था साहेब
अपनी जान के डर से होली नहीं मनाई
होली हमने मनाई
ताकि ख़ुशियों का रंग
पूरी कायनात में बिखर जाये
आप तो ख़ुशियाँ लुट रहे है साहेब
जब इतना भयावह का पता था
तब ही हमारे लिये निर्णय
क्यों नहीं लिया साहेब
ख़ाली जेब दान के दो समय के
खाने के सहारे कोई कैसे
रह सकता था साहेब
पत्नी रह भी ले लेकिन
बच्चे कैसे रहेंगे साहेब
आपके बच्चे नहीं है न साहेब !!!!
-कौशल तिवारी
( मज़दूर दिवस - २०२० )
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